Monday 29 December 2014

ए ज़िंदगी के मुसाफिरों-
ये जो धरती है वो उसकी है
टुकड़े टुकड़े करके, ना अपना घर समझ लेना |
भर के जल गंगा का मुट्ठी में, ना अपने पाप धो लेना
ये महफ़िल उसी की है, ना अपना हक समझ लेना |
...
ये जो बादलों का झरना है, पहाड़ों की जो चोटी है,
ये महफ़िल उसी की है, करिश्मा उसी का है |
हरे पेड़ों पे यूँ कोयल का इठलाना,
सूखे में भी पानी का एक कतरा मिल जाना,
ये हरियाली उसी की है,
ये नदियाँ उसी कीं हैं |
ये गर्मी मे जो ठंडक है, जो ठंडी में भी गर्मी है,
ये महफ़िल उसी की है, करिश्मा उसी का है |
ये खुशियों का जो मंज़र है,
दुखों का जो खंडहर है,
ये किल्कारी उसी की है,
ये गुस्ताख़ी उसी की है |
ये महफ़िल के आँगन मे मिलना और बिछड़ जाना,
ये नफ़रत उसी की है, मोहब्बत उसी की है |
मंदिर से जो मस्जिद को जो रस्ता मुड़ता है,
ये हिंदू भी उसी का है, मुसलमा उसी का है |
ये धर्मों का जो मेला है,
ये रिश्तों की जो माला है,
हर एक मोती उसी की है,
धागा उसी का है |

ये महफ़िल उसी की है, अफ़साना उसी का है...
           

 

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