Monday 28 September 2015

फ़ुर्सत में उस रोज़
खत का एक पन्ना हाथ लगा
लिखा था उसपे भी-
कि प्रियासी,
जब से तुम से दिल का बांड लड़ा
हाल कुछ ऐसा है दिल का
कि चारों ओर हाहाकार मचा |

ये जो खत का तुकड़ा
तबसे पड़ा था दुबका सिकुड़ा
पुरानी सी किताब में
कहता था रोज ये भी
आकर ले ले इसे भी तू हाथ में
चीख रहा था ये भी-
किताबों की मैली बाज़ार में |

प्रियासी,
ये भी था डूबा, तेरे अधूरे प्यार में |

खत की स्याही रेंग रेंग कर
आख़िर तक घिसती रही
बेचारी, गिरते आँसुओं में भी
संभल संभल कर बढ़ती रही |
वो जो लाल गुलाब खत के बीच
इतने रोज़ तड़पता रहा
वो भी हार कर
पन्नो पर अपना छाप छोड़ चला |

प्रियासी ,
खत पर लिखी तारीख तो हद पुरानी है
पर तेरी यादें तो
दिल के कमरे में आज भी सारीं हैं |
तेरी बातों की गूँज
धड़कन में छिप कर बसती है,
तेरी कमी तो
बाहें आज भी सहतीं हैं |

वैसे तो मेरा ये ख़ालीपन-
तेरे जाने का सितम है
पर प्यार करने वालों का
बिछड़ना भी तो एक रस्म है |

ये खत ही तो है, प्रियासी,
जो अपने शब्दों पर अमल है
इसपर गिरे लहू के वो दो बूँद
आज भी अटल हैं |
अब खत ही तो है ये
आज भी चुप छाप किताबों में बंद है
ओरना दिल की चौखट तो
राह तकते दिये सी, आज भी रौशन है |

Tuesday 15 September 2015

वक्त बेवक्त
मौसम बेमौसम
उंगलियाँ उठती हैं |
इनकी उनकी
जाने किस किस की
तानों की आवाज़ें
सुनाई पड़ती हैं |
कभी इस खिड़की
कभी उस दरवाज़े
शाम को अक्सर
सभा बैठती है|
अंधेरा उंजला सब सपाट |
अपलक एकटक
घिनौनी निगाहें टिकती हैं
उसपर !
ख़ास - अंजान
ठहाके सबके गूंजते|
चीरकर उंगलियों के बीच से
दबे कानों तक
पहुचते हैं -
किस्से !

ज़ुर्म ?
कस मुट्ठी
सामाजिक दीवार पर
सीधे दे मारा उसने|
और चीन ली
अपनी आज़ादी !