Monday 21 November 2016

बेकार बैठे रहियेगा इस तरह
हर रोज़
मेरी तरह
तो बेशक ये यादों का सिलसिला तो ज़ारी रहेगा|
दूर दराज, पन्नो में लिपटे
कुछ उस दिन का, कुछ इस मौसम का
टुकड़ा टुकड़ा
मन में मचलता रहेगा |
खोल के चित्ठों को, यूँ ही
बस आप भी
मेरी तरह
निहारते रहियेगा |
तकरारों का, ज़िद से उठी दीवारों का
एक रवइया आपका
एक रवइया मेरा भी,
रह-रह कर फिर आप भी, कहियेगा
मेरी तरह
उसने मुझे बर्बाद किया |
ये हाल जो हुआ है आपका, कुछ
मेरी तरह
आख़िर अब मान लीजिये आप भी
मामूली यादों से हमने खुद को शाद किया |
क्या बैठे हैं आप भी
बेकार में
उस बात को लिये
मेरी तरह,
चलिये जाइये |
अब मुस्कुराइये |
किसी रोज़ जो मुडियेगा उस राह पर
आप फिर
तो देखियेगा कि कहीं फिर
उलझ ना जाइयेगा
आप भी
मेरी तरह |

Thursday 28 July 2016

यूँ बार बार रूठ कर, 'कट्टी' ना कह जाया करो,
हर बार मनाने के बहाने मै तेरे और करीब आ जाता हूँ |
ना खत लिखे, ना हाल पूछा 
ना तुम लौटे, ना मेरा खत पहुँचा 
हमने तुम्हारे बिना जीने का कई बार सोचा |
हर बार किसी के जाने के गम में, ये आँखें नम नहीं होतीं,
कई बार खुद के बदलते चेहरे ही, खुद पर रोने को, मजबूर कर जातें हैं !
खैर
रही बात पुरानी
तो अब खुछ तब सा नहीं !
बातें , रातें 
मुस्कुराहटें
हंसी, ठिठोलें
सब पीछे छूट गये |
शायद ज़िन्दगी भी |
बड़े दिनो के बाद याद आज फिर अम्मा की आई है |
छोटे छोटे सपनो वाली वो मीठी पुरवाई है
सन्नाटो को चीरती वो मधुर शहनाई है
आँचल के कोनो मे सिमटी वो कठिन सिलाई है
लोरी की चौपाई से सरकती माँ अंगड़ाई है
अंधेरों में रहने वाली वो मेरी परछाईं है
बड़े दिनो के बाद याद आज अम्मा की आई है |
कभी थपकी देकर परिलोक की सैर मुझे करती है
कभी मुझे खिलाकर खुद भूखा सो जाती है
वो तो उजड़े घर मे खिलखिलती फुलवारी है
माँ तो हंस कर अंधेरे मे खुद जल जाती है
कभी कभी तो मुझे डाँट कर खुद रोने लग जाती है
हर रात अकेले सोने से पहले याद अम्मा की आती है |
भीतर भीतर बलके फिर भी रेशम से वो रहती है
तिनका तिनका बुनकर यादों की खुश्बू बोती है
दुखड़ों की नइया में बैठी वो मुझे हंसाया करती है
कभी निर्मल कभी कठोर वो कलकल बहती रहती है |
हर शाम जैसे फीकी पड़ती है
मन से बस एक आह निकलती है
माँ तू गर पास होती
तो रख गोद मे सर बस जब इतना कहती
"मेरी लाडो सबसे प्यारी"
तो मैं भी आँखे मींझ कर झट से सो जाती
माँ दूर देश में याद तेरी बड़ी आती |
कई दिनो से पन्ने बंद थे
कलम नहीं चली थी
अलमारी में किताबें सजीं थीं ,
मैं रोज उन्हे देखता
मुस्कुराता ,
फिर उन्हे टोलता
और भूल जाता |
किताबें फड़फड़ातीं
पन्ने चीखते
और मानो कलमें खुद चलने लगतीं |
आदत सी है उन्हे मेरी
और मुझे उनकी |
शायरियों की |
पर आदतों का क्या है
बदल जाती हैं
रह रह कर |
खुछ जान बूझ कर
और खुछ अनजाने में |
पर शायद इन पन्नो की खुशबू से
राहत मिलती है मुझको -
कलम चलाने से तसल्ली
लिखने से सुखून |
और वैसे भी
खुछ आदतें तो जा कर भी नहीं जातीं
उनका तो रिश्ता होता है जैसे धड़कनो से
बस खुछ यूँ ही है
कलम और मेरा रिशता -
मैं जा जा कर भी उनको लौट आता हूँ |
मैं कम लिखता हूँ कभी कभी ,
पर बदलता नहीं -
ना मैं ना मेरी आदतें |
आज वो मिले
कुछ उखड़े उखड़े से थे
कुछ नाराज़गी होगी |
पर हमसे?
मुमकिन नहीं !
सोचा पूछूँ, पर क्या
सोचा जाने दूं, पर कैसे
असमंजस में था |
खैर जाने दिया
अजनाबीयों सा उनको देख कर मुस्कुराया
वो भी हिचकिचाए-
कैसे हैं आप, और भाभी जी ?
अपनापन थोड़ा कम सा था
थोड़ी खटास सी थी
पर हमसे? क्यूँ भला ?
मालूम नहीं |
कुछ पल साथ रहे थे हम, पहले-
और अब हम यहाँ
उनका ठिकाना नहीं |
बेहतरीन शायरियाँ लिखते थे वो
अब नहीं लिखते शायद
अब कुछ आम आदमी सा काम करते हैं |
हम भी व्यस्त हैं
वो भी |
खुश तो हम भी नहीं हैं
पर खुश तो कोई भी नहीं है
वो भी नहीं |
वक्त है, गुज़र जाएगा !
गुज़रते गुज़रते |
अगली बार शायद वो दिखें
तो पहचाने पहचाने से लगें
या हो सकता है ना ही दिखें
क्या करना |
दिखें या ना
सुखी रहें| वो भी
और हो सके तो हम भी |
उस घर के झरोखे के बाजू के ताखे पर
एक दिया जलता है -
जाने उस दिये के साथ किसका इंतज़ार कटता है |
हालाँकि रहता तो कोई नहीं है उधर
सिवाए एक विधवा के
पर विधवाओं को तो शायद सिर्फ़ आँधीरा ही नसीब होता है |
वो ना दिखती है, और ना हम उसे ढूँढते हैं
पर शायद इस दिये से उसके होने का एहसास होता है|
कभी कभी ये दिया बुझ जाता है
हवाओं से, या गली के बच्चे शैतानी कर देते हैं |
उनकी माने तो उस घर में जाना पाप है
वो औरत एक काल है |
जाने उसके माँ-बाप कहाँ हैं
हैं भी या नहीं -
सुना था उसकी एक बेटी भी है
कहीं चली गयी शायद,
या हो सकता है कोई ले गया हो;
मैं असल में नया हूँ
ज़ाय्दा नहीं मालूम मुझे
बस जब भी यहाँ चबूतरे पर बैठता हूँ
तो उस दिये को देखता हूँ|
एक दो दफ़ा कोठरी में झाँका
तो लोगों ने टोक दिया|
मेरा भी क्या वास्ता|
पर सोचता हूँ
जब भी अपनी बेटी का ब्याह करूँगा-
दामाद से एक स्टैमप पेपर पर दस्तख़त करवा लूँगा
की मेरी बेटी विधवा तो ना होगी,
वरना शादी का ख्याल तो रहने ही देता हूँ|
हाँ, इस विधवा से मिलने का काफ़ी मन तो है
वो दिखती कैसी है,
क्या हमेशा सफेद पहनती है
या उसकी हथेली की लकीरें थोड़ी ज़ाय्दा घुमावदार हैं,
पर समाज से निकले जाने का दर भी तो है |
बेबस महसूस करता हूँ, मुमकिन है
बिल्कुल उसके जैसा |
वो क्या खाती है
त्योहारों पर क्या करती है
किससे लड़ती है, किससे बातें करती है
रोती है, कब हस्ती है
दिन भर क्या करती है
कोई कुछ नही जानता -
हाँ, कोई औरत उससे मिलने आई थी
लगभग एक दो महीने पहले
या शायद उससे भी पहले- याद नहीं
आई और चली गयी
ठहरी नहीं|
जाने कौन थी| वो फिर नहीं दिखी
हो सकता है सन्नाटे में आती हो
जब कोई नहीं जगता
किसे मालूम |
पहेली सी लगती है मुझे ये विधवा-
जिस दिन ये दिया बुझ जाएगा
समझ जाउँगा वो चली गयी
या शायद नहीं रही |
ये मौहल्ले वाले बाते तो करेंगे ही,
एकाद दो तो मुझ तक उड़ कर पहुचेंगी ही
फिर कुछ लिख दूँगा
उसके जाने पर-
रोउँगा थोड़ी|
विधवा, बेबस, औरत वो है
उनका काम है रोना-
मेरा थोड़ी |

Friday 15 April 2016

है अगर ज़ोर इतना आँधियों में
तो कह दो दामन मेरा भी अब उजाड़ दें,
फूल तो कब का मुरझाकर गिर गया
काँटा ही अकेला बचा रहा |

कह दो कोयल से कोई
मिठास दिल में मेरे भी थोड़ी सी घोल दें,
जाने वाला तो चला गया
खट्टा सा दिल ये क्यूँ रह गया |

कहता है ज़माना मुझसे
उमर बीत जाएगी 'गालियों' में
कौन समझाए उन्हे, रूह तो मेरी बिक गयी
बस पुतला सा मैं ही जीता गया |

सोचा था
तितलियाँ ही तों है जो आती रहेंगी
चार-दो बार
उनको भी घर नया शायद कोई मिल गया |

बहल तो जाता था मन
यादों के पन्नो से
किताबें भी रूठ गयीं-
मैं अकेला ही रह गया | 

Saturday 2 April 2016

मकान के आगे वाले दरवाज़े में
एक छोटी खिड़की सी है|
उसमें से खत अंदर आते थे |
खिड़की अब भी,
बस खत नहीं आते |

पीछे वाले कमरे की जाली से
कुछ टहनियाँ अंदर झाँकती थीं |
खिड़की अब भी है,
बस टहनी सूख गयी |

ऊपर छत पर
एक बड़ा कबूतर खाना था|
दाने पड़े अब भी हैं,
बस कबूतर अब नहीं आते |

बीच आँगन में, तुलसी के किनारे
एक बड़ी रंगोली थी|
ढाँचा अब भी है,
बस उसमें अब रंग नहीं भरते |

कमरे में एक अलमारी
आज भी किताबों की है
कलम साथ है,
बस लिखने के ख्याल अब नहीं आते |

वैसे तो ये घर हमारा था
हम यहाँ आज भी हैं,
बस वो अब नहीं आते |


Monday 28 March 2016

झील में काँपती परछाईं सा -
मेरा मन |

जाने क्यूँ स्थिर नहीं होता |
कभी उन गुप्त बातों पर
कभी बढ़ते नाखूनो पर
बाहर खिले गुल्मोहर पर
सीधी, सपाट सड़क पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन|

झील में काँपती परछाईं सा-
मेरा मन

उस रोज़ की तुम्हारी बिगड़ी तब्यत पर
ताखे पर जलती मोम पर
मिट्टी का ढेला ढोती चींटी पर
किताबों के रंगीन चित्रों पर
अपनी-तुम्हारी-उनकी सबकी उलझनों पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन |

झील में काँपती परछाईं सा -
मेरा मन |

व्यर्थ के सवालों पर
होली खेलती विधवाओं पर
परिवार के संघर्ष पर
उठती गिरती सरकार पर
महकते गुलाब पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन |

बेकल बकरों सा, मेरा मन |

Friday 4 March 2016

प्रिय !
मेरे हिस्से की सुहानी शाम हो तुम
मेरे बसंती मन का रंग हो तुम
बंजर जीवन में मेरे खिलती कली हो तुम
अल्हड़ जवानी का साथ हो मेरा तुम
मेरे रात की रानी, धूप में दर्पण हो तुम
मेरे लिखने का हुनर हो तुम |

मेरा इंतज़ार, तुम
मेरी हिचकियाँ, तुम|
मेरी करवटें, तुम
मेरी रचना हो तुम |

सिर्फ़ तुम !

Thursday 28 January 2016

सिरहाने रखी डायरी में चीखें बंद हैं |
खोलना मत उसको-
उसमें मेरी रूह दफ़न है |

जब माँ ने लड़कपन में प्यार से पुचकारा था
वो खुशी का सिलसिला उसी में क़ैद है,
जब माँ चली गयी-
तब अपना अकेलापन भी उसी में छिपाया था |

मेरे पसीने की रोटी का स्वाद
और उसके दिए हुए गुलाब की खुश्बू
उसके पन्नो में लिपटी हुई है |
कई रातों के अश्क और
कई ज़ुर्मों के रक्त
उसमें महफूज़ हैं|
खोलना मत उसको-
कहीं मेरा राज़, खुल ना जाए |

शब्द भी लिखे हैं जो उसमें
आपस में पहेलियाँ बुझाते होंगे,
कभी कभी पन्ने ठहाके लगते होंगे,
आख़िर कौन सा सच, उनको नहीं मालूम |

अब ऊपर वाले कमरे में रहता हूँ |
इसी डायरी को पढ़ता हूँ
कभी हंसता हूँ, कभी रोता हूँ,
कभी उदास हो जाता हूँ
तो कभी घंटों सिर्फ़ सोचता हूँ;
अब डायरी में पन्ने ही कितने बाकी हैं |

लिखे पन्नो को चीर कर, खिलौने बनाता हूँ |
शाम को खिड़की से झँकता हूँ,
जैसे ही सूरज कहीं छुप जाता है
बहती सरोवर में उन पन्नों की नाव तैरा देता हूँ
वहीं बैठ कर स्याही को पानी से मिलते देखता हूँ
मेरी ज़िंदगी महफूज़ रहती है, सरोवर में |
मैं फिर डायरी पर सर रखकर
निश्चिंत-
सो जाता हूँ |

Wednesday 27 January 2016

"जो मेरा है वो मुझे लौटा देना", कह कर वो अंजानी राह पर चल दी|
हम भी ठहरे ज़िद्दी | पीछे भागे |
उन्हे रोक कर बोला, "मैं ही तुम्हारा हूँ| मुझे ही लिए चलो|"
उन्होने हमे अपने तीखी-टिकी निगाहों में क़ैद किया और चली गयी| हमेशा के लिए |
वो शायद भूल गयी कि उनकी आँखो में वो हमारी उमर क़ैद की सज़ा थी |

Monday 11 January 2016

खुशकिस्मत होते हैं वो जिनको महबूब मिलता है
वो जो कभी हंसा जाता है, कभी रुला जाता है
जो कभी आँखो में आँसू सुखा जाता है
कभी होठों पर मुस्कान अटका जाता है |
जो कभी नींदो में जगा कर, दिन में सपने दिखा जाता है
जो ढलते दिन को भी शाम हंसी बना जाता है |
खुशकिस्मत होते हैं वो जिनसे घड़ी घड़ी
उनका महबूब मिलने आ जाता है |
घुल जाता है जिनका महबूब उनमे
जैसे भरे समंदर में नमक का स्वाद आता है
खुशकिस्मत होते हैं वो जिनके महबूब के लबों पर
घड़ी घड़ी उनका नाम आता है |

महबूब वो नहीं जो खुशबू सा आए और बह जाए
महबूब तो वो होता है जो आता है, ठहर जाता है |
महबूब नहीं वो समंदर जिसका किनारा होता है
महबूब तो वो दरिया है जो इठला कर बहता जाता है |
खुशकिस्मत होते हैं वो जिनका महबूब उनसे मिल जाता है |

खुशकिस्मत होते हैं वो जिनका महबूब हवा में लिपटा
घड़ी घड़ी उनको छू जाता है
कठिन राहों में भी
नवाबों सा चलता जाता है |

अजब है इश्क़ उनका जिनका महबूब उनसे मिलकर बिछड़ जाता है
महबूब तो वो है जो जाकर भी दिल में महफूज़ रह जाता है |

Tuesday 5 January 2016

वीरों को नमन !

क्या हुआ जो बर्फ गिरी है या तूफ़ानों ने हाथ फैलाए हैं
क्या हुआ गर बरसे अँगारे या मौत ने दरवाज़े खाटकाए हैं
कफ़न की पुडिया बाँध इन्होने सरहद पर पाओं टिकाए हैं
माँ के आँचल से दूर इन्होने, सीने पे घाव खाएँ हैं |
हो मेहन्दी का रंग, या हो बच्चे की किलकरी
इन तक कब ये रुक पाए हैं
हो त्योहार, खुशी या सावन् की फुहार
उन्होने सिर्फ़ धक्के ही खाए हैं |
कभी सुरँगों मे, तो कभी तपती रेत पर
कभी चट्टानो के बीच तो कभी धार में इन्होने रातें काटी हैं
फिर भी कभी इन्होने ना उफ़ की आवाज़ निकली है |
हम रहे ख़र्राटों, गानों में लीन
वे बमों की रोटी खाते हैं,
बिन जाने हमे वो हमारी खुशी के खातिर
खुशी खुशी शहीद हो जाते हैं |