Thursday 17 December 2015

हमारी झुकी निगाहो से पर्दे हटाकर दर्द पढ्ने की
उनकी आदत नहीं बदली
लाख मना करने पर पीछे आने की
उनकी आदत नहीं बदली |
कह दिया है उनसे नहीं हमे मोहब्बत
उनकी इज़हार करने की आदत नहीं बदली |
हम बेवफा, राहे बदलते रहे
उनकी साथ चलने की आदत नहीं बदली |
दुख मेरा, दर्द उनका
सुख मेरा, खुशी हमारी
उनकी 'अपना' कहने की आदत नहीं बदली |
हम तो नज़रें मिलने से पहले ही मुह मोड़ लिया करते हैं
उनकी मेहबूबा कह कर बुलाने की आदत नहीं बदली |
ना कहे होंगे अल्फ़ाज़ दो हमने उनसे सीधे मुह
उनकी चिट्ठियाँ लिखने की आदत नहीं बदली |
हम सपनो में इधर रहे अपने लीन
उनकी करवटे बदलने की आदत नहीं बदली |
खुश रहे हम हमेशा अपने में ही
किताबों में तस्वीरें छिपाने की उनकी आदत नहीं बदली |
साड़ी में लिपटी लज्जाए
अम्मा सबको बड़ा भाए
तन की गोरी, मन की भोली
प्रेम की मूरत, खिलती सूरत
आँखों में दुनिया बसाए
मीठी मीठी बात सुनाए |
माँग में उसके सिंदुरा सोहे
पाँव में उसके पायल होवे
पल्लू में सपने दबाए
अम्मा सबको बड़ा भाए |
साड़ी में लिपटी लज्जाए
अम्मा सबको बड़ा भाए
कानो में बाली, मेले वाली
पापा जो इसको दिलाए
उसे बड़ा भाए, पहने इठलाए
सबको दिखलाए
अम्मा लज्जाए
सबको बड़ा अम्मा भाए |
झोली उसकी, जन्नत की डोरी
बिटिया को लोरी सुनाए
पराया उसे कह ना पाए
अम्मा छुप छुप आँसू बहाए |
रसोई में दिन भर बिताए
अम्मा कह ना किसी को पाए
साड़ी में लिपटी लज्जाए
अम्मा, सबको बड़ा भाए
उसकी ममता उसका गहना
सबका दुखड़ा उसका अपना
अपने दर्द छिपाए
अम्मा कह कह रुक जाए |
लल्ला को जो दुख होवे तो
गोद में सीने लगाए
उसके दुख बिसराए
अम्मा उसको बड़ा भाए |
साड़ी में लिपटी लज्जाए
अम्मा, सबको बड़ा भाए

Monday 9 November 2015

दुल्हन सा सज़ा अंधियारा

कानों में दीपों की बाली
गले मे लटके झालर माला
बिछुओं में जड़ी हुई है
बाती की झरझर काया
दुल्हन सा सज़ा हुआ है अंधियारा |

दीपों के पर्व पर
चूनर लाल ओढ़े अंधियारा
पाँव फुलझड़ी की पायल
महका हुआ सा अंधियारा
दुल्हन सा सज़ा हुआ अंधियारा |

माथ अंधियारा , सुलभ सुनहरा
चटक रंगीला उंजियाला
रंगोली में लिपटा
जगमगाता अंधियारा |

दूध मिठाई, पूजन अर्चन
छुपा छुपा रोए अंधियारा |
उंजले घरोंदों में
तकलीफ़ों से पलता अंधियारा |
दुल्हन सा सज़ा अंधियारा |

कहे तानों में,
भरे कंठ से
उंजले से अंधियारा -
ये उँचे लंबे महलों में , रोज़ दो रोज़
आँधियारा बनता है उंजियाला |

Monday 28 September 2015

फ़ुर्सत में उस रोज़
खत का एक पन्ना हाथ लगा
लिखा था उसपे भी-
कि प्रियासी,
जब से तुम से दिल का बांड लड़ा
हाल कुछ ऐसा है दिल का
कि चारों ओर हाहाकार मचा |

ये जो खत का तुकड़ा
तबसे पड़ा था दुबका सिकुड़ा
पुरानी सी किताब में
कहता था रोज ये भी
आकर ले ले इसे भी तू हाथ में
चीख रहा था ये भी-
किताबों की मैली बाज़ार में |

प्रियासी,
ये भी था डूबा, तेरे अधूरे प्यार में |

खत की स्याही रेंग रेंग कर
आख़िर तक घिसती रही
बेचारी, गिरते आँसुओं में भी
संभल संभल कर बढ़ती रही |
वो जो लाल गुलाब खत के बीच
इतने रोज़ तड़पता रहा
वो भी हार कर
पन्नो पर अपना छाप छोड़ चला |

प्रियासी ,
खत पर लिखी तारीख तो हद पुरानी है
पर तेरी यादें तो
दिल के कमरे में आज भी सारीं हैं |
तेरी बातों की गूँज
धड़कन में छिप कर बसती है,
तेरी कमी तो
बाहें आज भी सहतीं हैं |

वैसे तो मेरा ये ख़ालीपन-
तेरे जाने का सितम है
पर प्यार करने वालों का
बिछड़ना भी तो एक रस्म है |

ये खत ही तो है, प्रियासी,
जो अपने शब्दों पर अमल है
इसपर गिरे लहू के वो दो बूँद
आज भी अटल हैं |
अब खत ही तो है ये
आज भी चुप छाप किताबों में बंद है
ओरना दिल की चौखट तो
राह तकते दिये सी, आज भी रौशन है |

Tuesday 15 September 2015

वक्त बेवक्त
मौसम बेमौसम
उंगलियाँ उठती हैं |
इनकी उनकी
जाने किस किस की
तानों की आवाज़ें
सुनाई पड़ती हैं |
कभी इस खिड़की
कभी उस दरवाज़े
शाम को अक्सर
सभा बैठती है|
अंधेरा उंजला सब सपाट |
अपलक एकटक
घिनौनी निगाहें टिकती हैं
उसपर !
ख़ास - अंजान
ठहाके सबके गूंजते|
चीरकर उंगलियों के बीच से
दबे कानों तक
पहुचते हैं -
किस्से !

ज़ुर्म ?
कस मुट्ठी
सामाजिक दीवार पर
सीधे दे मारा उसने|
और चीन ली
अपनी आज़ादी !

Monday 6 July 2015

जिंदगी ले चल मुझे उस जग में
जहाँ पथरीली राहों ने फूलों की चादर ओढी हो
जहाँ गगन की चोटी गज़रे से सुगंधित हो
जहाँ हिम की चट्टाने मखमल सी रेशम हो
झरनो में जहाँ अमृत बहता हो |

ज़िंदगी उस मोड़ पर मुड़ जाना
जहाँ पेड़ों की शाखा फलो के ज़ोर से झुकती हों
जहाँ फुलवारी में रंगों की वर्षा होती हो
जहाँ कदम कदम पर तितली की फ़ौज़े होती हों
सूरज की लौ भी जहाँ पानी सी ठंडी होती हों |

ज़िंदगी रुक जाना उस चौखट पर
जहाँ पवन केसर सी सुगंधित हो
जहाँ की वाणी शहद सी मीठी हो
जहाँ ममता की मूरत साक्षात मिलती हो
जहाँ प्रेम रस दिलों में घुलता हो
भाईचारा जहाँ हर दिल में बसता हो |

ले चल ज़िंदगी मुझे उसके पास
जो औरत को मनुष्य ही समझता हो
जो बहन की रक्षा खुद से पहले करता हो
जो माँ के साए को स्वर्ग समझता हो
जो बेटी को लड़के से कम ना समझता हो ||

Saturday 27 June 2015

* टपरी वाला छोटू *

असल में वो जो टपरी वाला छोटू है
वो घर का बड़का लड़का है
माँ की सेहत खातिर वो दिन भर
मेहनत करता है
छोटी बहेन 'राखी' को वो
बड़े नाज़ों से रखता है|

भोर होते ही छोटू घर से निकल पड़ता है
कभी कभी तो रातों को वो
टपरी पर ही रहता है|

लाचार माँ अब काम पे ना जाती है
दिन भर खटिया पर पड़े पड़े
बाबा को बिसराती है,
राखी अभी छोटी है
वो दिन भर सखी संग ही रहती है
मन की हो तो
छोटू संग टपरी चलने को कहती है |

वो जो भी पाता है
घर के चूल्‍हे में ही जाता है
राखी के पढ़ाई का भी
जैसे तैसे हो जाता है|
बचा बचा कर छोटू ने गुलक्ख में
सोचा था नया बूशर्ट लेवेगा
पर फिर सोचा की अबकी सावन
राखी को नया फ्राक लेदेगा |

छोटू का सेठ कभी उसे ज़यादा पैसे दे देता है
तो कभी उसे बुरा भला भी कह देता है
सेठ बाबा का दोस्त था
छोटू की मजबूरी समझता है |

जो बच्चे टपरी पर आते हैं
कई उसे चिढ़ते हैं
कई उसे टीप मारते हैं
तो कई उसे दुलराते हैं |
छोटू खुश तो हो जाता है
पर कई बार ग़लती भी कर जाता है
किसी की चाय किसी को
किसी का नाश्ता किसी और को दे आता है |
कई बार डाँट खाने पर
छोटू घर को भाग जाता है
घर की हालत देख, आँसू पोंछकर
वापस टपरी को आ जाता है|

उसकी आँखों में अब
राखी के सपने पलते हैं
और बचे कुचे ख्वाबों में
बस माँ का दर्द सिमटता है
छोटू से जो बन पाता है
उससे ज़यादा ही वो करता है
छोटी सी उम्र में छोटू
बाबा की कमी पूरी करता है |

Thursday 21 May 2015

बरसो दबा कर रखा था
खत में मैने
नाम तेरा
पन्नो को पलट कर
होता था ऐतबार तेरा
कभी अकेलेपन में तो
कभी भीड़ में
जब भी लगता था तुम आओगे
तो खतों को समेट कर
अक्सर तुमसे मुलाकात
किया करते थे|

देर सबेर  कभी
जब खुद से नफ़रत होती थी
तब भी
इन खतों मे दबे नाम से
हम छुप कर
प्यार किया करते थे |

Sunday 10 May 2015

बड़े दिनो के बाद याद आज फिर अम्मा की आई है |

छोटे छोटे सपनो वाली वो मीठी पुरवाई है
सन्नाटो को चीरती वो मधुर शहनाई है
आँचल के कोनो मे सिमटी वो कठिन सिलाई है
लोरी की चौपाई से सरकती माँ अंगड़ाई है
अंधेरों में रहने वाली वो मेरी परछाईं है
बड़े दिनो के बाद याद आज अम्मा की आई है |

कभी थपकी देकर परिलोक की सैर मुझे करती है
कभी मुझे खिलाकर खुद भूखा सो जाती है
वो तो उजड़े घर मे खिलखिलती फुलवारी है
माँ तो हंस कर अंधेरे मे खुद जल जाती है
कभी कभी तो मुझे डाँट कर खुद रोने लग जाती है
हर रात अकेले सोने से पहले याद अम्मा की आती है |

भीतर भीतर बलके फिर भी रेशम से वो रहती है
तिनका तिनका बुनकर यादों की खुश्बू बोती है
दुखड़ों की नइया में बैठी वो मुझे हंसाया करती है
कभी निर्मल कभी कठोर वो कलकल बहती रहती है |

हर शाम जैसे फीकी पड़ती है
मन से बस एक आह निकलती है
माँ तू गर पास होती
तो रख गोद मे सर बस जब इतना कहती
"मेरी लाडो सबसे प्यारी"
तो मैं भी आँखे मींझ कर झट से सो जाती
माँ दूर देश में याद तेरी बड़ी आती |

     

Friday 8 May 2015

अब तो काले कजरे के पीछे से
मृगनैनी पलके हौले उठती हैं
जब खाली खाली नज़मों से
दिल की धड़कन बढ़ती है -
बस सूनेपन की बाते कहती हैं |
जब भरी दोपहरी पेड़ों के पीछे से
छाओं अंगड़ाई लेती है
कोयल की कूंक भी
भारी ठोकर सी लगती है
तब मन की कोरी दीवारें -
बस सूनेपन की बातें कहतीं हैं |
जब दर्द दुनिया का, अपने से कम लगता है
ममता का मर्म भी, पत्थर सा लगता है
भूले क़िस्सों को पढ़कर
आँखों से अश्रु गिरता है
तो चीरकर, खोखला कंठ -
बस सूनेपन की बातें कहता है |
जब मधुमास पतझर सा दिखता है
जब चंदन आँखों मे चुभता है
जब ज़ुल्फो का लहराना दुशवारी लगता है
जब बाहों में काँटा सा चुभता है
तब नर्म सा आँसू भी -
सूनेपन की बातें कहता है |
जब ज़िंदगी प्रश्‍न की पहेली लगती है
मीठी बाँसुरी करकस सी लगती है
जब प्रिय ! तुमसे नफ़रत सी होती है
तो सपनों में भी -
सूनेपन की बातें होतीं हैं |
तपती धूप के बीच
आँगन की छाँव में
चौखट की आड़ में
मिलने का-
तुम्हारा
आधा सा वादा |
अबकी फागुन
मेहन्दी के सपनो का
तुम्हारे स्पर्श का
परदेश से खत का
तुम्हारा
आधा सा वादा...
पत्थर को पूजे भारत मेरा
बेटा भूखा सोए
जिसके घर मे आटा गीला
वही दूध से नाग को धोए |
हुक्का, सिगरेट फैशन भारत का
आनाज़, फल हुए पराए
छोटे छोटे कपड़े पहने
अधनग्न हीरोइन कह लाए |
पल्लू करना हुआ पुराना
अब तो हाट पेंट्स का दौर
नमस्ते, आभार को छोड़ पीछे
हम चले हाय, हेलो की ओर |
रेप हमारा कल्चर आज का
औरत हुई खिलौना
माँ, बेटी की इज़्ज़त का
समय हुआ पुराना|
भारत में ही
भारतीयों का ढेर हुआ अब ढाँचा
नेताओं के इशारों पर
नाचे सारा ज़माना |
कुर्सी वाले चाबुक खींचे
वोटर करे तमाशा
भारत वेल चले विदेश
खोखला समाज हमारा |
कोहराम मचा था शहर मे
कुछ झटको ने इंसानिया को सहमा दिया
हर छोटे बड़े ख्वाब को मिट्टी मे मिला दिया
चट्टानो को झटके मे दफ़ना दिया
किलकरियों को आँसू बना दिया
इमारतों को हुलिया बिगड़ दिया |
जो कल तक डींगे मारा करते थे
उन्हे ज़मीन पे ला दिया
किसी को बेसहारा
तो किसी को अनाथ बना दिया |
घरों को राख,
शहर को शमशान बना दिया |
कम्बख़्त ज़्यादा ना सही
हिंदू मुस्लिम को भाई बना दिया |

Sunday 5 April 2015

जब वर्षों बाद
आँगन में फिर दिवाकर आया
तुलसी का
नया सा पत्ता जब लहराया
सूखे उपवन में
एक पीला फूल मुस्काया
बंद कमरे के भीतर
तिरछी खिड़की पर
सोन चिरैया ने गाना गुनगुनाया
माथे पर
कतरा भर सिलवट का ना आया
जब लिखे बोलों में
फिर स्वर आया
मुरझाए चेहरे पर
रंग सुनेहरा दमकाया
जब बेसुरे ने
गाकर शेर सुनाया
जब घोर  तमस के बाद
पांखी ने मन बहलाया
जब रंगोली ने
खुद में रंग भरवाया
जब चलते चलते
खुद में एक उछाल आया
जब बंजर मन में
एक ख्याल तुम्हारा आया ...

 

Monday 2 March 2015

क्या थी ग़ज़ब की गुस्ताख़ी जो ना दिल समझ सका
थे हालत भी तो कुछ ऐसे की मन मचल उठा
होता गर इंतहान मोहब्बत का उस रोज़ अगर फिर
तो गाथा अमर प्रेम की ज़ुबानी सबकी होती |
जो दाग था इश्क़ का ज़ालिम ज़हन मे
वो भी तो शर्मा कर कही दुबक गया
डर किसी हमदर्द का फिर चिटक गया |
जो छलक रहा था देह से
वो हीरा चमक उठा |.
जो अमावस के घेरे मे छिपा हुआ था दिल
वो प्यार की गंगा मे फिर
डुबकी लगा उठा |
फीकी पड़ी लकीरों पे
फिर रंग मेहन्दी का, धनी चटक उठा
जो सूने पड़े थे कंठ
उनपे गहना सज उठा
वीरान सी माँग मे, सिंदुरा दिख पड़ा |
सूखे पड़े लबों से एक गीत निकल उठा;
पथरीली पड़ी आँखों में
कजरा संवर गया |
जो दोष था प्यार का
वो फिर से मुस्कुरा उठा-
रात के आँधियारे में, तारा चमक उठा
सूखे पड़े खेतों मे, फूल फिर खिल उठा
जो रह गये थे शिकवे उनसे, वो प्यार बन गया
क्या थी ग़ज़ब की गुस्ताख़ी ना दिल समझ सका|
            

 

Tuesday 10 February 2015

उनकी फ़ितरत ही थी बिना पलटे चले जाना -
और हमारी, रोज़ वहीं खड़े होकर, उन्हे बिना पलटे जाते देखना | 

Sunday 8 February 2015

किसी रोज़ जब मैं
खुले आसमान तले
चाँदनी रात को
तारों में
तेरी प्रतिमा देखूँगा,
आँखे मूंद कर
तुझे करीब महसूस करूँगा,
बरसात की बूँदों को
खुद पर गिरने दूँगा,
खोल आँखे
खुद ही खुद पर हसूँगा,
और देर रात
कोयल के गान सुन कर
अकेले ही
पकड़ तेरी कलाई
थोड़ा मटकुंगा,
तुझे सोच कर
मुस्काउँगा -
सन्नाटो में 
तेरी खिलखिलाहट पाउँगा,
या लगा गले हवा को
बादलों से बतियाउँगा
खुद को जब मैं
बदला बदला पाउँगा
बस उसी रात मैं तुझको
प्रेम संदेशा भिजवाउँगा |

Saturday 31 January 2015

गुस्ताखियों का मंज़र जो झेला था चुप्पियों के डर से
तो एक रोज़ नुमाइश-ए-प्यार का मेला लगना ही था |

जो सैर करी थी चुप छुपा कर सपनों में, शायरियों में, हर रोज़
उस रूह के अफ़साने से एक रोज़ तो परदा हटना ही था |

जो ना बिका था दौलत के बदले कभी
उस वफ़ादारी को एक रोज़ तो चुकना ही था |

जो पंख आसमाँ की रहमत से उड़े थे
उन्हे एक दिन माटी में दफ़न तो होना ही था |

जो झोंकों में भी अडिग खड़ा था, निहत्थे
उसको टूटे दिल के भालों पर तो चलना ही था |

जो कुछ सपने बच गये थे गैरों से
उन सपनों को, तो अपनो को कुचलना ही था |

और जो संवारती थी इठला कर आईने में
उसकी जगती आँखों से, तो कजरा निकलना ही था |

जो शौ पहुँचाएगी मुझे उसके दर तक
उससे एक रोज़ तो रूबरू होना ही था |

जो तने खड़े थे शौहरतों के बूते पर
उन्हे मोहब्बत में घुटनों पर तो गिरना ही था |

Wednesday 28 January 2015

आई जो आज फिर वो हिचकोली फागुन की
चाँद तले, ठंडी रेत के दर्पण की
वो छवि के छन्द फूटे थे उस रोज़
कुछ मेरे, कुछ तेरे अपनेपन की |
सौंधी सी, फीकी फुहार वाली हँसी
झमझमाते आँसुओं के बीच पनपती नन्ही कली
सर्द समेटे, बिखरती धूप
और ये,
उस रोज़ फागुन वाली फिर हिचकोली |
वो मंद मंद आँखो का होंठों को निमंत्रण
दर्द की मायूसी वाली खुशी की
उस दिन के उदासी की
और रात के अकेलेपन की
सनसनाती आई जो हिचकोली फागुन की फिर आज |
उस फागुन तेरा ग़ज़लों में ढल जाना
हर मंज़िल के रास्ते में तुमसे टकराना
तेरी मोर से आँखों की कथाएँ गुनगुनाना
लकीरें हाथों की हाथों में ही सिमट जाना
उस फागुन
तेरा मुझे देखकर फिर मुस्कुराना-
बेशक होगी ग़लती मेरी ही
आज फिर हिचकोली फागुन की आना |

Saturday 10 January 2015

बरसों पहले
एक संदेशा आया था
सावन-भादों की शाम-
मेहन्दी रचेगी |
इस सरसों के माह-
फागुन फूल खिलेंगे
रंगोली से मुख निखरेंगे
कुमकुम, बेंदी दमकेगी
अँगने शगुन बरसेंगे
अपनों के गुलदस्ते सजेंगे|
चौखटे, दरवाज़े
मंगल होएंगे
सुख बरसेगा !
घर-घर उंजियला होगा |
आशाओं के फूल निकलेंगे
कामनाओं के फल चढ़ेंगे|
नरम खुश्बू के बीच
हम सब साथ खड़े होंगे |
सम्मान की किल्कारी गूंजेगी
स्वाभीमान दम तोड़ेगा|
हाय ! हर बार जैसे
अबकी भादों फिर
खुशियों का रंग बरसेगा |
गर मौत किरानों पर बिकती
तो थोक में तोड़ा हम भी खरीद लेते
जो मर मर के जीते हैं रोज़,
उन्हे थोड़ी भेंट में दे देते |
यूँ तो जी कर कुछ ना कमा सके
मर कर -
कफ़न भर ज़मीं के हकदार तो होंगे |
ओढ़ कर दो गज़ ज़मीं
कौन सोना चाहता है,
पर मौत से आँख मिचोली करने वालों का भी
अपना ही अफ़साना है |
गर सस्ती होती मौत थोड़ी,
तो किरानों से हम भी ले ही लेते
क्या पता किसी रोज़, जी कर ऊब गये
तो मौत को ही आज़मा लेते |
वैसे तो जीने से कोई गिले नहीं-
पर गर "सेल" में बिकती मौत
तो एक दफे, हम भी अपना ही लेते |
शिकवे जो होंगे ज़िंदगी से कभी
तो खरीद कर मौत, देह में उतार लेंगे
क्या हुआ जो फूटी कौड़ी नहीं भाती जेब को-
किराने वाला भी तो यार है अपना,
आज फिर उससे, मौत उधर ले लेंगे |
और
गर हो ऐसा कि बिके मौत किरानों पर
तो घुट घुट के जीने से अच्छा
हम मौत को ही गले लगा लेंगे |

Thursday 1 January 2015

हाँ मैं नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तानी हूँ |
कभी आई थी सीता बनकर, कभी दुर्गा का मैने रूप लिया
पर अब तो हर गली चौपरे मैने अपने दुपट्टे से खुद का मुह ढँक लिया |
जो मर्द तिराहों पर बैठे हैं निगरानी को
उनसे डर कर मैने अपने सपनो को रौंद दिया |
जो चौखट मैने लाँघ दिया, भर भर ताने सुनती हूँ-
मैं वही नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तानी हूँ |
जो पहने कपड़े छोटे मैने, बदचलन मुझे बता दिया
जो तोड़े मैने रिश्ते, हाहाकार मचा दिया |
देखकर जिस्म को उसने मेरे, हाय ! लाल टपका दिया
लड़के वालों ने मुझको "ना कुछ ख़ास" ठहरा दिया |
जो बनी बेटी, बहू, माँ मैं, बंधानो में बँधती हूँ
घर के भीतर भी मैं रोज़ थोड़ा मरती हूँ
ताने सुन सुन कर खुद को कोसा करती हूँ
हाँ मैं नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तानी हूँ |
जो निकली मैं पल्लू से बाहर, तेज़ाबों की बारिश होती है
दूर दूर से ताड़ ताड़ के, निगरानी मुझपे होती है|
भरी दोपहरी मेरे अंग से दुपट्टा घसीट लिया
मेरे खुद के घरवालों ने मुझे कलमूही नसीब दिया |
जो अरमानों की माला पिरोती थी, उसका धागा मैने तोड़ दिया
हाँ उनके लिए मैने खुद से मूह मोड़ लिया |
हाँ थोड़ा घबराती हूँ, लज़्जती हूँ
इठलाती हूँ, बलकाती हूँ
सहम कर दुबक जाती हूँ
हाँ मैं नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तान कही जाती हूँ |
वो मुझसे कहते हैं, मैं इज़्ज़त उनके घर की हूँ
सुन सुन कर ये मैं कभी चैन से ना सोती हूँ,
उंजले मे अकेले चलने से मैं रास्ते पे डरती हूँ|
वो बलात्कारी ही सबला मुझको कहते हैं
जो अंधेरे में चलनी मुझको करते हैं
ज़ोर ज़बरदस्ती करके वो मुझको
दरवाज़े के पीछे ही रखते हैं |
मैं वो हूँ जो खुद के नैनों के आँसू पिए हुए हूँ
हाँ मैं नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तानी हूँ |
पढ़ कर रोज़ अख़बारों में, देख न्यूज़ चैनलों पर
वो भूल मुझको जया करते हैं
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में, वो पराया धन मुझको कहते हैं
पाल पोशकर बड़ा किया तो, दहेज़ में बेचा करते हैं
आज कल तो मेरे अपने ही, मेरे जिस्म का सौदा किया करते हैं |
बोल पडू जो अपने हक को, ज़िंदा जलाई मैं जाती हूँ-
हिन्दुस्तानी हूँ, अबला नारी कही जाती हूँ ||