Thursday 28 July 2016

यूँ बार बार रूठ कर, 'कट्टी' ना कह जाया करो,
हर बार मनाने के बहाने मै तेरे और करीब आ जाता हूँ |
ना खत लिखे, ना हाल पूछा 
ना तुम लौटे, ना मेरा खत पहुँचा 
हमने तुम्हारे बिना जीने का कई बार सोचा |
हर बार किसी के जाने के गम में, ये आँखें नम नहीं होतीं,
कई बार खुद के बदलते चेहरे ही, खुद पर रोने को, मजबूर कर जातें हैं !
खैर
रही बात पुरानी
तो अब खुछ तब सा नहीं !
बातें , रातें 
मुस्कुराहटें
हंसी, ठिठोलें
सब पीछे छूट गये |
शायद ज़िन्दगी भी |
बड़े दिनो के बाद याद आज फिर अम्मा की आई है |
छोटे छोटे सपनो वाली वो मीठी पुरवाई है
सन्नाटो को चीरती वो मधुर शहनाई है
आँचल के कोनो मे सिमटी वो कठिन सिलाई है
लोरी की चौपाई से सरकती माँ अंगड़ाई है
अंधेरों में रहने वाली वो मेरी परछाईं है
बड़े दिनो के बाद याद आज अम्मा की आई है |
कभी थपकी देकर परिलोक की सैर मुझे करती है
कभी मुझे खिलाकर खुद भूखा सो जाती है
वो तो उजड़े घर मे खिलखिलती फुलवारी है
माँ तो हंस कर अंधेरे मे खुद जल जाती है
कभी कभी तो मुझे डाँट कर खुद रोने लग जाती है
हर रात अकेले सोने से पहले याद अम्मा की आती है |
भीतर भीतर बलके फिर भी रेशम से वो रहती है
तिनका तिनका बुनकर यादों की खुश्बू बोती है
दुखड़ों की नइया में बैठी वो मुझे हंसाया करती है
कभी निर्मल कभी कठोर वो कलकल बहती रहती है |
हर शाम जैसे फीकी पड़ती है
मन से बस एक आह निकलती है
माँ तू गर पास होती
तो रख गोद मे सर बस जब इतना कहती
"मेरी लाडो सबसे प्यारी"
तो मैं भी आँखे मींझ कर झट से सो जाती
माँ दूर देश में याद तेरी बड़ी आती |
कई दिनो से पन्ने बंद थे
कलम नहीं चली थी
अलमारी में किताबें सजीं थीं ,
मैं रोज उन्हे देखता
मुस्कुराता ,
फिर उन्हे टोलता
और भूल जाता |
किताबें फड़फड़ातीं
पन्ने चीखते
और मानो कलमें खुद चलने लगतीं |
आदत सी है उन्हे मेरी
और मुझे उनकी |
शायरियों की |
पर आदतों का क्या है
बदल जाती हैं
रह रह कर |
खुछ जान बूझ कर
और खुछ अनजाने में |
पर शायद इन पन्नो की खुशबू से
राहत मिलती है मुझको -
कलम चलाने से तसल्ली
लिखने से सुखून |
और वैसे भी
खुछ आदतें तो जा कर भी नहीं जातीं
उनका तो रिश्ता होता है जैसे धड़कनो से
बस खुछ यूँ ही है
कलम और मेरा रिशता -
मैं जा जा कर भी उनको लौट आता हूँ |
मैं कम लिखता हूँ कभी कभी ,
पर बदलता नहीं -
ना मैं ना मेरी आदतें |
आज वो मिले
कुछ उखड़े उखड़े से थे
कुछ नाराज़गी होगी |
पर हमसे?
मुमकिन नहीं !
सोचा पूछूँ, पर क्या
सोचा जाने दूं, पर कैसे
असमंजस में था |
खैर जाने दिया
अजनाबीयों सा उनको देख कर मुस्कुराया
वो भी हिचकिचाए-
कैसे हैं आप, और भाभी जी ?
अपनापन थोड़ा कम सा था
थोड़ी खटास सी थी
पर हमसे? क्यूँ भला ?
मालूम नहीं |
कुछ पल साथ रहे थे हम, पहले-
और अब हम यहाँ
उनका ठिकाना नहीं |
बेहतरीन शायरियाँ लिखते थे वो
अब नहीं लिखते शायद
अब कुछ आम आदमी सा काम करते हैं |
हम भी व्यस्त हैं
वो भी |
खुश तो हम भी नहीं हैं
पर खुश तो कोई भी नहीं है
वो भी नहीं |
वक्त है, गुज़र जाएगा !
गुज़रते गुज़रते |
अगली बार शायद वो दिखें
तो पहचाने पहचाने से लगें
या हो सकता है ना ही दिखें
क्या करना |
दिखें या ना
सुखी रहें| वो भी
और हो सके तो हम भी |
उस घर के झरोखे के बाजू के ताखे पर
एक दिया जलता है -
जाने उस दिये के साथ किसका इंतज़ार कटता है |
हालाँकि रहता तो कोई नहीं है उधर
सिवाए एक विधवा के
पर विधवाओं को तो शायद सिर्फ़ आँधीरा ही नसीब होता है |
वो ना दिखती है, और ना हम उसे ढूँढते हैं
पर शायद इस दिये से उसके होने का एहसास होता है|
कभी कभी ये दिया बुझ जाता है
हवाओं से, या गली के बच्चे शैतानी कर देते हैं |
उनकी माने तो उस घर में जाना पाप है
वो औरत एक काल है |
जाने उसके माँ-बाप कहाँ हैं
हैं भी या नहीं -
सुना था उसकी एक बेटी भी है
कहीं चली गयी शायद,
या हो सकता है कोई ले गया हो;
मैं असल में नया हूँ
ज़ाय्दा नहीं मालूम मुझे
बस जब भी यहाँ चबूतरे पर बैठता हूँ
तो उस दिये को देखता हूँ|
एक दो दफ़ा कोठरी में झाँका
तो लोगों ने टोक दिया|
मेरा भी क्या वास्ता|
पर सोचता हूँ
जब भी अपनी बेटी का ब्याह करूँगा-
दामाद से एक स्टैमप पेपर पर दस्तख़त करवा लूँगा
की मेरी बेटी विधवा तो ना होगी,
वरना शादी का ख्याल तो रहने ही देता हूँ|
हाँ, इस विधवा से मिलने का काफ़ी मन तो है
वो दिखती कैसी है,
क्या हमेशा सफेद पहनती है
या उसकी हथेली की लकीरें थोड़ी ज़ाय्दा घुमावदार हैं,
पर समाज से निकले जाने का दर भी तो है |
बेबस महसूस करता हूँ, मुमकिन है
बिल्कुल उसके जैसा |
वो क्या खाती है
त्योहारों पर क्या करती है
किससे लड़ती है, किससे बातें करती है
रोती है, कब हस्ती है
दिन भर क्या करती है
कोई कुछ नही जानता -
हाँ, कोई औरत उससे मिलने आई थी
लगभग एक दो महीने पहले
या शायद उससे भी पहले- याद नहीं
आई और चली गयी
ठहरी नहीं|
जाने कौन थी| वो फिर नहीं दिखी
हो सकता है सन्नाटे में आती हो
जब कोई नहीं जगता
किसे मालूम |
पहेली सी लगती है मुझे ये विधवा-
जिस दिन ये दिया बुझ जाएगा
समझ जाउँगा वो चली गयी
या शायद नहीं रही |
ये मौहल्ले वाले बाते तो करेंगे ही,
एकाद दो तो मुझ तक उड़ कर पहुचेंगी ही
फिर कुछ लिख दूँगा
उसके जाने पर-
रोउँगा थोड़ी|
विधवा, बेबस, औरत वो है
उनका काम है रोना-
मेरा थोड़ी |