Wednesday 15 February 2017

तुम्हारे तलवे का तिल

जब रात को कभी तुम
मुझसे पहले सो जाती हो
और मैं वहीं बैठा किसी अखबार में लीन होता हूँ
तुम करवट पलटती हो, चादार खींचती हो
तुम्हारे तलवे का तिल
मुझे चादार की घूंघट से झांक कर देखता है,
तुम फिर करवट बदलती हो
वो छिप जाता है  |

जब तुम त्योहारों पर आंगन में बैठी
कुछ गुनगुना कर, पैरों में आलता लगा रही होती होती हो
थोड़े से तलवे उठा कर पीछे की बेड़ियां जोड़ रही होती हो
और मैं वहीं से गुज़र रहा होता हूँ
तुम्हारे तलवे का तिल मुझे देख रहा होता है
एकटक,
और फिर एक आलते की कतार उस तक बेह कर जाती है
वो ढंक जाता है |

जब शाम को बगीचे में परिवार के संग बैठते हैं
तुम अम्मा, बुआ के साथ झूले पर बैठी खिलखिला रही होती हों
अंजाने में तुम पैरों को हवा में थोड़ा से उठाती हो
तुम्हारे तलवे का तिल मुझे  छिप कर देख रहा होता है
और ज्यों ही मैं उसे देखता हूँ
वो शरमा कर तुम्हारी साड़ी के फाल के पीछे छिप जाता है |

जब तुम सोफे पर बैठी, मेज़ पर पैर टिकाए
किसी शायार की कोई शायरी पढ़कर
मंद मंद मुस्कुरा रही होती हो
मैं दरवाज़े पर खड़ा, तुम्हारे
तुम्हारे तलवे के तिल से बतिया रहा होता हूँ |
और तुम्हे ऊबलते दूध की खुशबू आ जाती है
तुम छन छन करती दौड़ती चली जाती हो -
बात अधूरी रह जाती है |

जब ठिठुरती ठंड में तुम
सुबह उठ कर जल्दी जल्दी मोज़े पहन रही होती हो
और मैं अल्साया सा बिस्तर में दुबका होता हूँ
तुम्हारे तलवे का तिल मुझे कुछ कहने को होता है
तुम झट से उन्हे ज़ुराबों में कैद कर देती हो -
वो कह नहीं पाता |

जब उस रोज़, आखिरी बार, तुम्हे चौखट से ले जाया जा रहा था
तुम्हारे पैरों को रस्सी से बांधा था , मुह को सफेद चादर से ढांका था
मैं वहीं रुका था -
तुम्हारे तलवे के  तिल के पास
देख रहा था उसको, वो मुझको |
इस बार वो बिलकुल मूक रहा
मानो उसे मालूम हो कि ये आखिरी दफा हो
जी भर कर निहारने का |

तुम चली गयी
कई बातें अधूरी रह गईं !