Thursday 4 December 2014

वो फिरी सी इक गली के छोर पर
मिट्टी के मकान के बाहर
सने चौखाटे पर बैठ
'मैया' हर भोर, सांझ
खत का रास्ता टेरती थी |
बेटा सरहद पर जो था !
वही धानी सिकुड़ी धोती
मुरझाई त्वचा और काँच का कड़ा
दिन कारगिल से विधवा वहीं अडिग अडी थी |
तस्वीर लल्ला की
अब तो हर डाकिया को रटी थी |
गाँव, मोहल्ला
टोली, चौपरा
आस हर ओर लगी थी |
एक रोज़ जो संदेशा आया
चीख पर उसकी साँस अटकी थी
निकलता आंस भान्त भर तब तक
उसकी कब्र को मिट्टी खुदी थी |
गली के उस  भरे छोर पर, तबसे
इक फूल तक ना टिका था-
बुढ़िया का दर्दनाक इंतकाल
सबको खूब खला था |
 

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