Saturday 31 January 2015

गुस्ताखियों का मंज़र जो झेला था चुप्पियों के डर से
तो एक रोज़ नुमाइश-ए-प्यार का मेला लगना ही था |

जो सैर करी थी चुप छुपा कर सपनों में, शायरियों में, हर रोज़
उस रूह के अफ़साने से एक रोज़ तो परदा हटना ही था |

जो ना बिका था दौलत के बदले कभी
उस वफ़ादारी को एक रोज़ तो चुकना ही था |

जो पंख आसमाँ की रहमत से उड़े थे
उन्हे एक दिन माटी में दफ़न तो होना ही था |

जो झोंकों में भी अडिग खड़ा था, निहत्थे
उसको टूटे दिल के भालों पर तो चलना ही था |

जो कुछ सपने बच गये थे गैरों से
उन सपनों को, तो अपनो को कुचलना ही था |

और जो संवारती थी इठला कर आईने में
उसकी जगती आँखों से, तो कजरा निकलना ही था |

जो शौ पहुँचाएगी मुझे उसके दर तक
उससे एक रोज़ तो रूबरू होना ही था |

जो तने खड़े थे शौहरतों के बूते पर
उन्हे मोहब्बत में घुटनों पर तो गिरना ही था |

Wednesday 28 January 2015

आई जो आज फिर वो हिचकोली फागुन की
चाँद तले, ठंडी रेत के दर्पण की
वो छवि के छन्द फूटे थे उस रोज़
कुछ मेरे, कुछ तेरे अपनेपन की |
सौंधी सी, फीकी फुहार वाली हँसी
झमझमाते आँसुओं के बीच पनपती नन्ही कली
सर्द समेटे, बिखरती धूप
और ये,
उस रोज़ फागुन वाली फिर हिचकोली |
वो मंद मंद आँखो का होंठों को निमंत्रण
दर्द की मायूसी वाली खुशी की
उस दिन के उदासी की
और रात के अकेलेपन की
सनसनाती आई जो हिचकोली फागुन की फिर आज |
उस फागुन तेरा ग़ज़लों में ढल जाना
हर मंज़िल के रास्ते में तुमसे टकराना
तेरी मोर से आँखों की कथाएँ गुनगुनाना
लकीरें हाथों की हाथों में ही सिमट जाना
उस फागुन
तेरा मुझे देखकर फिर मुस्कुराना-
बेशक होगी ग़लती मेरी ही
आज फिर हिचकोली फागुन की आना |

Saturday 10 January 2015

बरसों पहले
एक संदेशा आया था
सावन-भादों की शाम-
मेहन्दी रचेगी |
इस सरसों के माह-
फागुन फूल खिलेंगे
रंगोली से मुख निखरेंगे
कुमकुम, बेंदी दमकेगी
अँगने शगुन बरसेंगे
अपनों के गुलदस्ते सजेंगे|
चौखटे, दरवाज़े
मंगल होएंगे
सुख बरसेगा !
घर-घर उंजियला होगा |
आशाओं के फूल निकलेंगे
कामनाओं के फल चढ़ेंगे|
नरम खुश्बू के बीच
हम सब साथ खड़े होंगे |
सम्मान की किल्कारी गूंजेगी
स्वाभीमान दम तोड़ेगा|
हाय ! हर बार जैसे
अबकी भादों फिर
खुशियों का रंग बरसेगा |
गर मौत किरानों पर बिकती
तो थोक में तोड़ा हम भी खरीद लेते
जो मर मर के जीते हैं रोज़,
उन्हे थोड़ी भेंट में दे देते |
यूँ तो जी कर कुछ ना कमा सके
मर कर -
कफ़न भर ज़मीं के हकदार तो होंगे |
ओढ़ कर दो गज़ ज़मीं
कौन सोना चाहता है,
पर मौत से आँख मिचोली करने वालों का भी
अपना ही अफ़साना है |
गर सस्ती होती मौत थोड़ी,
तो किरानों से हम भी ले ही लेते
क्या पता किसी रोज़, जी कर ऊब गये
तो मौत को ही आज़मा लेते |
वैसे तो जीने से कोई गिले नहीं-
पर गर "सेल" में बिकती मौत
तो एक दफे, हम भी अपना ही लेते |
शिकवे जो होंगे ज़िंदगी से कभी
तो खरीद कर मौत, देह में उतार लेंगे
क्या हुआ जो फूटी कौड़ी नहीं भाती जेब को-
किराने वाला भी तो यार है अपना,
आज फिर उससे, मौत उधर ले लेंगे |
और
गर हो ऐसा कि बिके मौत किरानों पर
तो घुट घुट के जीने से अच्छा
हम मौत को ही गले लगा लेंगे |

Thursday 1 January 2015

हाँ मैं नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तानी हूँ |
कभी आई थी सीता बनकर, कभी दुर्गा का मैने रूप लिया
पर अब तो हर गली चौपरे मैने अपने दुपट्टे से खुद का मुह ढँक लिया |
जो मर्द तिराहों पर बैठे हैं निगरानी को
उनसे डर कर मैने अपने सपनो को रौंद दिया |
जो चौखट मैने लाँघ दिया, भर भर ताने सुनती हूँ-
मैं वही नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तानी हूँ |
जो पहने कपड़े छोटे मैने, बदचलन मुझे बता दिया
जो तोड़े मैने रिश्ते, हाहाकार मचा दिया |
देखकर जिस्म को उसने मेरे, हाय ! लाल टपका दिया
लड़के वालों ने मुझको "ना कुछ ख़ास" ठहरा दिया |
जो बनी बेटी, बहू, माँ मैं, बंधानो में बँधती हूँ
घर के भीतर भी मैं रोज़ थोड़ा मरती हूँ
ताने सुन सुन कर खुद को कोसा करती हूँ
हाँ मैं नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तानी हूँ |
जो निकली मैं पल्लू से बाहर, तेज़ाबों की बारिश होती है
दूर दूर से ताड़ ताड़ के, निगरानी मुझपे होती है|
भरी दोपहरी मेरे अंग से दुपट्टा घसीट लिया
मेरे खुद के घरवालों ने मुझे कलमूही नसीब दिया |
जो अरमानों की माला पिरोती थी, उसका धागा मैने तोड़ दिया
हाँ उनके लिए मैने खुद से मूह मोड़ लिया |
हाँ थोड़ा घबराती हूँ, लज़्जती हूँ
इठलाती हूँ, बलकाती हूँ
सहम कर दुबक जाती हूँ
हाँ मैं नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तान कही जाती हूँ |
वो मुझसे कहते हैं, मैं इज़्ज़त उनके घर की हूँ
सुन सुन कर ये मैं कभी चैन से ना सोती हूँ,
उंजले मे अकेले चलने से मैं रास्ते पे डरती हूँ|
वो बलात्कारी ही सबला मुझको कहते हैं
जो अंधेरे में चलनी मुझको करते हैं
ज़ोर ज़बरदस्ती करके वो मुझको
दरवाज़े के पीछे ही रखते हैं |
मैं वो हूँ जो खुद के नैनों के आँसू पिए हुए हूँ
हाँ मैं नारी हूँ, अबला हिन्दुस्तानी हूँ |
पढ़ कर रोज़ अख़बारों में, देख न्यूज़ चैनलों पर
वो भूल मुझको जया करते हैं
रोज़मर्रा की ज़िंदगी में, वो पराया धन मुझको कहते हैं
पाल पोशकर बड़ा किया तो, दहेज़ में बेचा करते हैं
आज कल तो मेरे अपने ही, मेरे जिस्म का सौदा किया करते हैं |
बोल पडू जो अपने हक को, ज़िंदा जलाई मैं जाती हूँ-
हिन्दुस्तानी हूँ, अबला नारी कही जाती हूँ ||