Friday 15 April 2016

है अगर ज़ोर इतना आँधियों में
तो कह दो दामन मेरा भी अब उजाड़ दें,
फूल तो कब का मुरझाकर गिर गया
काँटा ही अकेला बचा रहा |

कह दो कोयल से कोई
मिठास दिल में मेरे भी थोड़ी सी घोल दें,
जाने वाला तो चला गया
खट्टा सा दिल ये क्यूँ रह गया |

कहता है ज़माना मुझसे
उमर बीत जाएगी 'गालियों' में
कौन समझाए उन्हे, रूह तो मेरी बिक गयी
बस पुतला सा मैं ही जीता गया |

सोचा था
तितलियाँ ही तों है जो आती रहेंगी
चार-दो बार
उनको भी घर नया शायद कोई मिल गया |

बहल तो जाता था मन
यादों के पन्नो से
किताबें भी रूठ गयीं-
मैं अकेला ही रह गया | 

Saturday 2 April 2016

मकान के आगे वाले दरवाज़े में
एक छोटी खिड़की सी है|
उसमें से खत अंदर आते थे |
खिड़की अब भी,
बस खत नहीं आते |

पीछे वाले कमरे की जाली से
कुछ टहनियाँ अंदर झाँकती थीं |
खिड़की अब भी है,
बस टहनी सूख गयी |

ऊपर छत पर
एक बड़ा कबूतर खाना था|
दाने पड़े अब भी हैं,
बस कबूतर अब नहीं आते |

बीच आँगन में, तुलसी के किनारे
एक बड़ी रंगोली थी|
ढाँचा अब भी है,
बस उसमें अब रंग नहीं भरते |

कमरे में एक अलमारी
आज भी किताबों की है
कलम साथ है,
बस लिखने के ख्याल अब नहीं आते |

वैसे तो ये घर हमारा था
हम यहाँ आज भी हैं,
बस वो अब नहीं आते |