Saturday 31 January 2015

गुस्ताखियों का मंज़र जो झेला था चुप्पियों के डर से
तो एक रोज़ नुमाइश-ए-प्यार का मेला लगना ही था |

जो सैर करी थी चुप छुपा कर सपनों में, शायरियों में, हर रोज़
उस रूह के अफ़साने से एक रोज़ तो परदा हटना ही था |

जो ना बिका था दौलत के बदले कभी
उस वफ़ादारी को एक रोज़ तो चुकना ही था |

जो पंख आसमाँ की रहमत से उड़े थे
उन्हे एक दिन माटी में दफ़न तो होना ही था |

जो झोंकों में भी अडिग खड़ा था, निहत्थे
उसको टूटे दिल के भालों पर तो चलना ही था |

जो कुछ सपने बच गये थे गैरों से
उन सपनों को, तो अपनो को कुचलना ही था |

और जो संवारती थी इठला कर आईने में
उसकी जगती आँखों से, तो कजरा निकलना ही था |

जो शौ पहुँचाएगी मुझे उसके दर तक
उससे एक रोज़ तो रूबरू होना ही था |

जो तने खड़े थे शौहरतों के बूते पर
उन्हे मोहब्बत में घुटनों पर तो गिरना ही था |

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