Tuesday 15 September 2015

वक्त बेवक्त
मौसम बेमौसम
उंगलियाँ उठती हैं |
इनकी उनकी
जाने किस किस की
तानों की आवाज़ें
सुनाई पड़ती हैं |
कभी इस खिड़की
कभी उस दरवाज़े
शाम को अक्सर
सभा बैठती है|
अंधेरा उंजला सब सपाट |
अपलक एकटक
घिनौनी निगाहें टिकती हैं
उसपर !
ख़ास - अंजान
ठहाके सबके गूंजते|
चीरकर उंगलियों के बीच से
दबे कानों तक
पहुचते हैं -
किस्से !

ज़ुर्म ?
कस मुट्ठी
सामाजिक दीवार पर
सीधे दे मारा उसने|
और चीन ली
अपनी आज़ादी !

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