Monday 28 March 2016

झील में काँपती परछाईं सा -
मेरा मन |

जाने क्यूँ स्थिर नहीं होता |
कभी उन गुप्त बातों पर
कभी बढ़ते नाखूनो पर
बाहर खिले गुल्मोहर पर
सीधी, सपाट सड़क पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन|

झील में काँपती परछाईं सा-
मेरा मन

उस रोज़ की तुम्हारी बिगड़ी तब्यत पर
ताखे पर जलती मोम पर
मिट्टी का ढेला ढोती चींटी पर
किताबों के रंगीन चित्रों पर
अपनी-तुम्हारी-उनकी सबकी उलझनों पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन |

झील में काँपती परछाईं सा -
मेरा मन |

व्यर्थ के सवालों पर
होली खेलती विधवाओं पर
परिवार के संघर्ष पर
उठती गिरती सरकार पर
महकते गुलाब पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन |

बेकल बकरों सा, मेरा मन |

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