Thursday 28 July 2016

कई दिनो से पन्ने बंद थे
कलम नहीं चली थी
अलमारी में किताबें सजीं थीं ,
मैं रोज उन्हे देखता
मुस्कुराता ,
फिर उन्हे टोलता
और भूल जाता |
किताबें फड़फड़ातीं
पन्ने चीखते
और मानो कलमें खुद चलने लगतीं |
आदत सी है उन्हे मेरी
और मुझे उनकी |
शायरियों की |
पर आदतों का क्या है
बदल जाती हैं
रह रह कर |
खुछ जान बूझ कर
और खुछ अनजाने में |
पर शायद इन पन्नो की खुशबू से
राहत मिलती है मुझको -
कलम चलाने से तसल्ली
लिखने से सुखून |
और वैसे भी
खुछ आदतें तो जा कर भी नहीं जातीं
उनका तो रिश्ता होता है जैसे धड़कनो से
बस खुछ यूँ ही है
कलम और मेरा रिशता -
मैं जा जा कर भी उनको लौट आता हूँ |
मैं कम लिखता हूँ कभी कभी ,
पर बदलता नहीं -
ना मैं ना मेरी आदतें |

No comments:

Post a Comment