Thursday 28 January 2016

सिरहाने रखी डायरी में चीखें बंद हैं |
खोलना मत उसको-
उसमें मेरी रूह दफ़न है |

जब माँ ने लड़कपन में प्यार से पुचकारा था
वो खुशी का सिलसिला उसी में क़ैद है,
जब माँ चली गयी-
तब अपना अकेलापन भी उसी में छिपाया था |

मेरे पसीने की रोटी का स्वाद
और उसके दिए हुए गुलाब की खुश्बू
उसके पन्नो में लिपटी हुई है |
कई रातों के अश्क और
कई ज़ुर्मों के रक्त
उसमें महफूज़ हैं|
खोलना मत उसको-
कहीं मेरा राज़, खुल ना जाए |

शब्द भी लिखे हैं जो उसमें
आपस में पहेलियाँ बुझाते होंगे,
कभी कभी पन्ने ठहाके लगते होंगे,
आख़िर कौन सा सच, उनको नहीं मालूम |

अब ऊपर वाले कमरे में रहता हूँ |
इसी डायरी को पढ़ता हूँ
कभी हंसता हूँ, कभी रोता हूँ,
कभी उदास हो जाता हूँ
तो कभी घंटों सिर्फ़ सोचता हूँ;
अब डायरी में पन्ने ही कितने बाकी हैं |

लिखे पन्नो को चीर कर, खिलौने बनाता हूँ |
शाम को खिड़की से झँकता हूँ,
जैसे ही सूरज कहीं छुप जाता है
बहती सरोवर में उन पन्नों की नाव तैरा देता हूँ
वहीं बैठ कर स्याही को पानी से मिलते देखता हूँ
मेरी ज़िंदगी महफूज़ रहती है, सरोवर में |
मैं फिर डायरी पर सर रखकर
निश्चिंत-
सो जाता हूँ |

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