एक ज़ुर्म की सज़ा जो रेती गयी बादलों के कंठ पे
आँसुओं की बारिश, बरस पड़ी माटी की फीकी सी सुगंध पे
वो ज़ुर्म भी तो था, प्रभाकर को छिपाने का
प्रकाश को अपने अंदर ही निगल जाने का|
सज़ा-ए-ज़ुर्म का सिलसिला तो गुनाहों से वाकिफ़ था
बस अंत सज़ा के, एक नन्हा हरा पौधा माटी में उपजाया था
हवा का झोंका एक ज़ोर से फिर उसको हिलाया था
चाँद ने उसको 'लल्ला' कहके बुलाया था
बस इंसा ने धार लात उसपे, उसको फिर सज़ा का पैगाम सुनाया था |
आँसुओं की बारिश, बरस पड़ी माटी की फीकी सी सुगंध पे
वो ज़ुर्म भी तो था, प्रभाकर को छिपाने का
प्रकाश को अपने अंदर ही निगल जाने का|
सज़ा-ए-ज़ुर्म का सिलसिला तो गुनाहों से वाकिफ़ था
बस अंत सज़ा के, एक नन्हा हरा पौधा माटी में उपजाया था
हवा का झोंका एक ज़ोर से फिर उसको हिलाया था
चाँद ने उसको 'लल्ला' कहके बुलाया था
बस इंसा ने धार लात उसपे, उसको फिर सज़ा का पैगाम सुनाया था |
Nice one Ananya
ReplyDeleteThanx ! :)
ReplyDeletenice
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