Thursday, 28 July 2016

कई दिनो से पन्ने बंद थे
कलम नहीं चली थी
अलमारी में किताबें सजीं थीं ,
मैं रोज उन्हे देखता
मुस्कुराता ,
फिर उन्हे टोलता
और भूल जाता |
किताबें फड़फड़ातीं
पन्ने चीखते
और मानो कलमें खुद चलने लगतीं |
आदत सी है उन्हे मेरी
और मुझे उनकी |
शायरियों की |
पर आदतों का क्या है
बदल जाती हैं
रह रह कर |
खुछ जान बूझ कर
और खुछ अनजाने में |
पर शायद इन पन्नो की खुशबू से
राहत मिलती है मुझको -
कलम चलाने से तसल्ली
लिखने से सुखून |
और वैसे भी
खुछ आदतें तो जा कर भी नहीं जातीं
उनका तो रिश्ता होता है जैसे धड़कनो से
बस खुछ यूँ ही है
कलम और मेरा रिशता -
मैं जा जा कर भी उनको लौट आता हूँ |
मैं कम लिखता हूँ कभी कभी ,
पर बदलता नहीं -
ना मैं ना मेरी आदतें |
आज वो मिले
कुछ उखड़े उखड़े से थे
कुछ नाराज़गी होगी |
पर हमसे?
मुमकिन नहीं !
सोचा पूछूँ, पर क्या
सोचा जाने दूं, पर कैसे
असमंजस में था |
खैर जाने दिया
अजनाबीयों सा उनको देख कर मुस्कुराया
वो भी हिचकिचाए-
कैसे हैं आप, और भाभी जी ?
अपनापन थोड़ा कम सा था
थोड़ी खटास सी थी
पर हमसे? क्यूँ भला ?
मालूम नहीं |
कुछ पल साथ रहे थे हम, पहले-
और अब हम यहाँ
उनका ठिकाना नहीं |
बेहतरीन शायरियाँ लिखते थे वो
अब नहीं लिखते शायद
अब कुछ आम आदमी सा काम करते हैं |
हम भी व्यस्त हैं
वो भी |
खुश तो हम भी नहीं हैं
पर खुश तो कोई भी नहीं है
वो भी नहीं |
वक्त है, गुज़र जाएगा !
गुज़रते गुज़रते |
अगली बार शायद वो दिखें
तो पहचाने पहचाने से लगें
या हो सकता है ना ही दिखें
क्या करना |
दिखें या ना
सुखी रहें| वो भी
और हो सके तो हम भी |
उस घर के झरोखे के बाजू के ताखे पर
एक दिया जलता है -
जाने उस दिये के साथ किसका इंतज़ार कटता है |
हालाँकि रहता तो कोई नहीं है उधर
सिवाए एक विधवा के
पर विधवाओं को तो शायद सिर्फ़ आँधीरा ही नसीब होता है |
वो ना दिखती है, और ना हम उसे ढूँढते हैं
पर शायद इस दिये से उसके होने का एहसास होता है|
कभी कभी ये दिया बुझ जाता है
हवाओं से, या गली के बच्चे शैतानी कर देते हैं |
उनकी माने तो उस घर में जाना पाप है
वो औरत एक काल है |
जाने उसके माँ-बाप कहाँ हैं
हैं भी या नहीं -
सुना था उसकी एक बेटी भी है
कहीं चली गयी शायद,
या हो सकता है कोई ले गया हो;
मैं असल में नया हूँ
ज़ाय्दा नहीं मालूम मुझे
बस जब भी यहाँ चबूतरे पर बैठता हूँ
तो उस दिये को देखता हूँ|
एक दो दफ़ा कोठरी में झाँका
तो लोगों ने टोक दिया|
मेरा भी क्या वास्ता|
पर सोचता हूँ
जब भी अपनी बेटी का ब्याह करूँगा-
दामाद से एक स्टैमप पेपर पर दस्तख़त करवा लूँगा
की मेरी बेटी विधवा तो ना होगी,
वरना शादी का ख्याल तो रहने ही देता हूँ|
हाँ, इस विधवा से मिलने का काफ़ी मन तो है
वो दिखती कैसी है,
क्या हमेशा सफेद पहनती है
या उसकी हथेली की लकीरें थोड़ी ज़ाय्दा घुमावदार हैं,
पर समाज से निकले जाने का दर भी तो है |
बेबस महसूस करता हूँ, मुमकिन है
बिल्कुल उसके जैसा |
वो क्या खाती है
त्योहारों पर क्या करती है
किससे लड़ती है, किससे बातें करती है
रोती है, कब हस्ती है
दिन भर क्या करती है
कोई कुछ नही जानता -
हाँ, कोई औरत उससे मिलने आई थी
लगभग एक दो महीने पहले
या शायद उससे भी पहले- याद नहीं
आई और चली गयी
ठहरी नहीं|
जाने कौन थी| वो फिर नहीं दिखी
हो सकता है सन्नाटे में आती हो
जब कोई नहीं जगता
किसे मालूम |
पहेली सी लगती है मुझे ये विधवा-
जिस दिन ये दिया बुझ जाएगा
समझ जाउँगा वो चली गयी
या शायद नहीं रही |
ये मौहल्ले वाले बाते तो करेंगे ही,
एकाद दो तो मुझ तक उड़ कर पहुचेंगी ही
फिर कुछ लिख दूँगा
उसके जाने पर-
रोउँगा थोड़ी|
विधवा, बेबस, औरत वो है
उनका काम है रोना-
मेरा थोड़ी |

Friday, 15 April 2016

है अगर ज़ोर इतना आँधियों में
तो कह दो दामन मेरा भी अब उजाड़ दें,
फूल तो कब का मुरझाकर गिर गया
काँटा ही अकेला बचा रहा |

कह दो कोयल से कोई
मिठास दिल में मेरे भी थोड़ी सी घोल दें,
जाने वाला तो चला गया
खट्टा सा दिल ये क्यूँ रह गया |

कहता है ज़माना मुझसे
उमर बीत जाएगी 'गालियों' में
कौन समझाए उन्हे, रूह तो मेरी बिक गयी
बस पुतला सा मैं ही जीता गया |

सोचा था
तितलियाँ ही तों है जो आती रहेंगी
चार-दो बार
उनको भी घर नया शायद कोई मिल गया |

बहल तो जाता था मन
यादों के पन्नो से
किताबें भी रूठ गयीं-
मैं अकेला ही रह गया | 

Saturday, 2 April 2016

मकान के आगे वाले दरवाज़े में
एक छोटी खिड़की सी है|
उसमें से खत अंदर आते थे |
खिड़की अब भी,
बस खत नहीं आते |

पीछे वाले कमरे की जाली से
कुछ टहनियाँ अंदर झाँकती थीं |
खिड़की अब भी है,
बस टहनी सूख गयी |

ऊपर छत पर
एक बड़ा कबूतर खाना था|
दाने पड़े अब भी हैं,
बस कबूतर अब नहीं आते |

बीच आँगन में, तुलसी के किनारे
एक बड़ी रंगोली थी|
ढाँचा अब भी है,
बस उसमें अब रंग नहीं भरते |

कमरे में एक अलमारी
आज भी किताबों की है
कलम साथ है,
बस लिखने के ख्याल अब नहीं आते |

वैसे तो ये घर हमारा था
हम यहाँ आज भी हैं,
बस वो अब नहीं आते |


Monday, 28 March 2016

झील में काँपती परछाईं सा -
मेरा मन |

जाने क्यूँ स्थिर नहीं होता |
कभी उन गुप्त बातों पर
कभी बढ़ते नाखूनो पर
बाहर खिले गुल्मोहर पर
सीधी, सपाट सड़क पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन|

झील में काँपती परछाईं सा-
मेरा मन

उस रोज़ की तुम्हारी बिगड़ी तब्यत पर
ताखे पर जलती मोम पर
मिट्टी का ढेला ढोती चींटी पर
किताबों के रंगीन चित्रों पर
अपनी-तुम्हारी-उनकी सबकी उलझनों पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन |

झील में काँपती परछाईं सा -
मेरा मन |

व्यर्थ के सवालों पर
होली खेलती विधवाओं पर
परिवार के संघर्ष पर
उठती गिरती सरकार पर
महकते गुलाब पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन |

बेकल बकरों सा, मेरा मन |

Friday, 4 March 2016

प्रिय !
मेरे हिस्से की सुहानी शाम हो तुम
मेरे बसंती मन का रंग हो तुम
बंजर जीवन में मेरे खिलती कली हो तुम
अल्हड़ जवानी का साथ हो मेरा तुम
मेरे रात की रानी, धूप में दर्पण हो तुम
मेरे लिखने का हुनर हो तुम |

मेरा इंतज़ार, तुम
मेरी हिचकियाँ, तुम|
मेरी करवटें, तुम
मेरी रचना हो तुम |

सिर्फ़ तुम !