Saturday, 2 April 2016

मकान के आगे वाले दरवाज़े में
एक छोटी खिड़की सी है|
उसमें से खत अंदर आते थे |
खिड़की अब भी,
बस खत नहीं आते |

पीछे वाले कमरे की जाली से
कुछ टहनियाँ अंदर झाँकती थीं |
खिड़की अब भी है,
बस टहनी सूख गयी |

ऊपर छत पर
एक बड़ा कबूतर खाना था|
दाने पड़े अब भी हैं,
बस कबूतर अब नहीं आते |

बीच आँगन में, तुलसी के किनारे
एक बड़ी रंगोली थी|
ढाँचा अब भी है,
बस उसमें अब रंग नहीं भरते |

कमरे में एक अलमारी
आज भी किताबों की है
कलम साथ है,
बस लिखने के ख्याल अब नहीं आते |

वैसे तो ये घर हमारा था
हम यहाँ आज भी हैं,
बस वो अब नहीं आते |


Monday, 28 March 2016

झील में काँपती परछाईं सा -
मेरा मन |

जाने क्यूँ स्थिर नहीं होता |
कभी उन गुप्त बातों पर
कभी बढ़ते नाखूनो पर
बाहर खिले गुल्मोहर पर
सीधी, सपाट सड़क पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन|

झील में काँपती परछाईं सा-
मेरा मन

उस रोज़ की तुम्हारी बिगड़ी तब्यत पर
ताखे पर जलती मोम पर
मिट्टी का ढेला ढोती चींटी पर
किताबों के रंगीन चित्रों पर
अपनी-तुम्हारी-उनकी सबकी उलझनों पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन |

झील में काँपती परछाईं सा -
मेरा मन |

व्यर्थ के सवालों पर
होली खेलती विधवाओं पर
परिवार के संघर्ष पर
उठती गिरती सरकार पर
महकते गुलाब पर
बस डोलता रहता है -
मेरा मन |

बेकल बकरों सा, मेरा मन |

Friday, 4 March 2016

प्रिय !
मेरे हिस्से की सुहानी शाम हो तुम
मेरे बसंती मन का रंग हो तुम
बंजर जीवन में मेरे खिलती कली हो तुम
अल्हड़ जवानी का साथ हो मेरा तुम
मेरे रात की रानी, धूप में दर्पण हो तुम
मेरे लिखने का हुनर हो तुम |

मेरा इंतज़ार, तुम
मेरी हिचकियाँ, तुम|
मेरी करवटें, तुम
मेरी रचना हो तुम |

सिर्फ़ तुम !

Thursday, 28 January 2016

सिरहाने रखी डायरी में चीखें बंद हैं |
खोलना मत उसको-
उसमें मेरी रूह दफ़न है |

जब माँ ने लड़कपन में प्यार से पुचकारा था
वो खुशी का सिलसिला उसी में क़ैद है,
जब माँ चली गयी-
तब अपना अकेलापन भी उसी में छिपाया था |

मेरे पसीने की रोटी का स्वाद
और उसके दिए हुए गुलाब की खुश्बू
उसके पन्नो में लिपटी हुई है |
कई रातों के अश्क और
कई ज़ुर्मों के रक्त
उसमें महफूज़ हैं|
खोलना मत उसको-
कहीं मेरा राज़, खुल ना जाए |

शब्द भी लिखे हैं जो उसमें
आपस में पहेलियाँ बुझाते होंगे,
कभी कभी पन्ने ठहाके लगते होंगे,
आख़िर कौन सा सच, उनको नहीं मालूम |

अब ऊपर वाले कमरे में रहता हूँ |
इसी डायरी को पढ़ता हूँ
कभी हंसता हूँ, कभी रोता हूँ,
कभी उदास हो जाता हूँ
तो कभी घंटों सिर्फ़ सोचता हूँ;
अब डायरी में पन्ने ही कितने बाकी हैं |

लिखे पन्नो को चीर कर, खिलौने बनाता हूँ |
शाम को खिड़की से झँकता हूँ,
जैसे ही सूरज कहीं छुप जाता है
बहती सरोवर में उन पन्नों की नाव तैरा देता हूँ
वहीं बैठ कर स्याही को पानी से मिलते देखता हूँ
मेरी ज़िंदगी महफूज़ रहती है, सरोवर में |
मैं फिर डायरी पर सर रखकर
निश्चिंत-
सो जाता हूँ |

Wednesday, 27 January 2016

"जो मेरा है वो मुझे लौटा देना", कह कर वो अंजानी राह पर चल दी|
हम भी ठहरे ज़िद्दी | पीछे भागे |
उन्हे रोक कर बोला, "मैं ही तुम्हारा हूँ| मुझे ही लिए चलो|"
उन्होने हमे अपने तीखी-टिकी निगाहों में क़ैद किया और चली गयी| हमेशा के लिए |
वो शायद भूल गयी कि उनकी आँखो में वो हमारी उमर क़ैद की सज़ा थी |

Monday, 11 January 2016

खुशकिस्मत होते हैं वो जिनको महबूब मिलता है
वो जो कभी हंसा जाता है, कभी रुला जाता है
जो कभी आँखो में आँसू सुखा जाता है
कभी होठों पर मुस्कान अटका जाता है |
जो कभी नींदो में जगा कर, दिन में सपने दिखा जाता है
जो ढलते दिन को भी शाम हंसी बना जाता है |
खुशकिस्मत होते हैं वो जिनसे घड़ी घड़ी
उनका महबूब मिलने आ जाता है |
घुल जाता है जिनका महबूब उनमे
जैसे भरे समंदर में नमक का स्वाद आता है
खुशकिस्मत होते हैं वो जिनके महबूब के लबों पर
घड़ी घड़ी उनका नाम आता है |

महबूब वो नहीं जो खुशबू सा आए और बह जाए
महबूब तो वो होता है जो आता है, ठहर जाता है |
महबूब नहीं वो समंदर जिसका किनारा होता है
महबूब तो वो दरिया है जो इठला कर बहता जाता है |
खुशकिस्मत होते हैं वो जिनका महबूब उनसे मिल जाता है |

खुशकिस्मत होते हैं वो जिनका महबूब हवा में लिपटा
घड़ी घड़ी उनको छू जाता है
कठिन राहों में भी
नवाबों सा चलता जाता है |

अजब है इश्क़ उनका जिनका महबूब उनसे मिलकर बिछड़ जाता है
महबूब तो वो है जो जाकर भी दिल में महफूज़ रह जाता है |

Tuesday, 5 January 2016

वीरों को नमन !

क्या हुआ जो बर्फ गिरी है या तूफ़ानों ने हाथ फैलाए हैं
क्या हुआ गर बरसे अँगारे या मौत ने दरवाज़े खाटकाए हैं
कफ़न की पुडिया बाँध इन्होने सरहद पर पाओं टिकाए हैं
माँ के आँचल से दूर इन्होने, सीने पे घाव खाएँ हैं |
हो मेहन्दी का रंग, या हो बच्चे की किलकरी
इन तक कब ये रुक पाए हैं
हो त्योहार, खुशी या सावन् की फुहार
उन्होने सिर्फ़ धक्के ही खाए हैं |
कभी सुरँगों मे, तो कभी तपती रेत पर
कभी चट्टानो के बीच तो कभी धार में इन्होने रातें काटी हैं
फिर भी कभी इन्होने ना उफ़ की आवाज़ निकली है |
हम रहे ख़र्राटों, गानों में लीन
वे बमों की रोटी खाते हैं,
बिन जाने हमे वो हमारी खुशी के खातिर
खुशी खुशी शहीद हो जाते हैं |